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नरक में आग ढ़ोने वाली कविताएं / नीलोत्पल

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मैं जिस उम्मीद के साथ
आता हूं तुम्हारी ओर
वह बची हुई नहीं लगती

मैं जिन हाथों के खुरदुरेपन को
चूमना चाहता हूं
वे साथ नहीं देते

वे औरतें
जो शताब्दियों से गा नहीं पाईं
अपनी उदासी के गीत
मैं उनकी खामोशी
छू नहीं पाता

ऐसा नहीं कि हमारे बीच
संवादहीनता हो
या परस्पर कोई आधार न हो
कुछ संकोच या झिझक है
कह नहीं पाता

मैं लिखता हूं
लेकिन अचकचाता चला जाता हूं
मेरा स्वर भारी लगता है

मैं झुंझलाता हूं
शब्द और हमारे बीच इतना
धुंधलापन क्यों हैं

हम आख़री बार कब मिले थे ?
क्या कविता का वह घर हमें याद है?
जहां हम जड़ों की गहराई तक उतरे थे
और खंगाला था एक-दूसरे को

हम अपरिचित रहे
हम एक अलग दुनिया में थे
जिसका मतलब शब्दों और अर्थों से नहीं
था हमारी संवेदनाओं से

हमने अच्छा वक्त साथ बिताया
इस यक़ीन के साथ जुड़े रहे
हम तय नहीं करेंगे अपनी सीमाएं
हम ख़ेद नहीं मनाएंगे अपनी नाक़ामियों के

हमारे चुने रास्ते
भले चमचमाती सीढ़ियों की ओर न जाते
लेकिन उनमें मृत्यु का अनंत स्वाद
जीवन की फूटती कोंपलें
हमारे बीच नयी सरगमें लेकर आती
हम उत्साह और अपनी उदासी से
भरपूर रहे

वक़्त बीत रहा है
हम नहीं हैं आसपास
हम दूर तक एक लहर लेकर आए
लेकिन हमने अलविदा नहीं कहा

यात्राएं थमी हुई हैं
और हम विश्वास करने के बज़ाए
देख रहे हैं अपनी आँखों में
स्थगन और विस्थापन के दंश

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उम्मीदें टूट रही हैं
लेकिन मुझे प्यार है तुमसे

मैं आकाश के लिए नहीं
धरती के लिए चाहता हूं
तुम्हारी जड़ों का विस्तार

कविताएं भले न गाई जाएं
लेकिन उनकी आंच
देती रहेगी ताप
हमारे ठंडे़ शरीर को

मैं जिसके लिए लिखता हूं
वह ठंड़ी रोशनी,
छूटे बंदरगाह पर प्रतीक्षाएं,
नावों का खोना,
चिड़ियों की खामोशी,
बारिश का अनंत विलाप

क्या तुम सुन रहे हो
हमारा चुप रह जाना

क्या तुम आ रहे हो
दरवाज़ों से बाहर

मैं कहीं आता हूं, जाता हूं
इससे फ़र्क नहीं पड़ता
मेरी आवाज़ सुनकर मत आना
वे गीत जो गुनगुनाए जा रहे हैं
ज़रा अपनी खिड़कियां खोलना

बाहर, ताजे़ ख़़ून से लिखी जा रही हैं
तुम्हारे लिए
नरक में आग ढ़ोने वाली कविताएं