नरबलि : अभिधा की एक शाम / विवेक निराला
एक छोटी शाम जो
लम्बी खिंचती जाती थी
बिल्कुल अभिधा में ।
रक्ताभा लिए रवि
लुकता जाता था ।
लक्षणा के लद चुके
दिनों के बाद
व्यंजना की एक छोटी-सी शाम
धीरे-धीरे
करती रही अपना प्रसार
बढ़ती जाती थी भीड़
सिकुड़ रहा था सभागार ।
रचना ही बचना है
कोहराम मचना है ।
कहा कभी किसी ने
बेदाँत जबड़ों के बीच
कुतरे जाते हुए ।
अहंकार से लथपथ
शतपथी ब्राह्मणों के
पान से ललाये मुख
से होते हुए आख़िर
पेट में जो पचना है
आयताकार प्रकाश-पुंज
फैला है भीतर
बाहर शाम को
लील रहा अंधकार
मंच पर आसीन
पहने कौपीन
लदकर लिए घातक हथियार
आतुर थे करने को एकल संहार
वायु-मार्ग से आए
ऋषिगण करते आलोचन
लोहित-लोचन ।
थके चरण
वह वधस्थल को
जाता उन्मन, नतनयन
माला और दुशाला को
डाला एक कोने में;
वध के पश्चात रक्त
सहेज कर भगोने में,
तेज़ धार, वह कटार
पोंछ-पाछ, साफ़ कर
अन्तिम यह वाक्य कहा--
"हल्का है,
बासी है, कल का है,
डिम्ब है न बिम्ब है
अभिधा है, अभिधा है
अग्नि को जो अर्पण है
मेरी प्रिय समिधा है ।"