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नव ज्योति जलाओ / प्रेमलता त्रिपाठी

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प्रीति जगे मन आँगन में सब अंध कटे नव ज्योति जलाओ।
मान करो शुचि कर्म विधा तब प्रानन से जग रीति सजाओ।

राग नहीं अनुराग बढ़े मन द्वेष मिटे भव बंधन सारा,
लेख लिलार न मेट सके प्रभु नाम सुधा नित गंग नहाओ।

आन रहे अभिमान नसे हिय प्रेम जगे सुखदा वसुधा पै,
शोध करें प्रतिशोध नहीं तन सेवक हो मति धीर कहाओ।

घोर बढ़ी विपदा जन की अब देव सदा यह दीन पुकारे
पीर हरो घन नीर बनो तन ताप घटे सब धुंध मिटाओ।

रंग भरो सब जीवन में पुनि होय निरापद प्रान हमारा
छंद बने नव गीत सधे अविराम गहें पथ प्रेम बढ़ाओ।