नशा हिरन हो गया चाय का! / योगेन्द्र दत्त शर्मा
बंदर जी का मूड बन रहा
उनको कविता सूझ रही है,
मगर बंदरिया बड़ी देर से
बुझी आग से जूझ रही है।
बंदर जी फरमाइश करते
हर घंटे में गरम चाय की,
उन्हें नहीं है चिंता कोई
घर की घटती हुई आय की
बंदर जी के राग देखकर
इधर बंदरिया कुढ़ती रहती,
उधर कल्पना बंदर जी की
कविताओं में उड़ती रहती।
काम-धाम के नाम सदा ही
सबको धता बताते रहते,
मिली बंदरिया सीधी-सादी,
उसको खूब सताते रहते।
एक बंदरिया, सौ झंझट हैं
यों तो उसका बुरा हाल है,
चला रही है घर की गाड़ी
यह भी उसका ही कमाल है।
मगर अजब-सा गजब हो गया
खत्म हो गया ईंधन सारा,
बंदर जी ने चाय माँग ली,
चढ़ा बंदरिया का भी पारा।
फाड़-फाड़कर कविताओं को
फौरन माचिस उन्हें दिखाई,
बंदर जी के लिए फटाफट
चसकदार-सी चाय बनाई।
चुस्की भरते हुए मजे से
बंदर जी ने लिया जायका,
मगर असलियत पता चली, तो
नशा हिरन हो गया चाय का!