नशे में दया / रघुवीर सहाय
मैं नशे में धुत था आधी रात के सुनसान में
एक कविता बोलता जाता था अपनी जान में
कुछ मिनट पहले किए थे बिल पे मैंने दस्तख़त
ख़ानसामा सोचता होगा कि यह सब है मुफ़्त
तुम जो चाहो खा लो पी लो और यह सिगरेट लो
सुन के मुझको देखता था वह कि अपने पेट को?
फिर कहा रख कर के सिगरेट जेब में मेरे लिए
आज पी लूँगा इसे पर कल तो बीड़ी चाहिए
एक बंडल साठ पैसे का बहुत चल जाएगा
उसकी ठंडी नज़र कहती थी कि कल, कल आएगा
होश खो बैठे हो तुम कल की ख़बर तुमको नहीं
तुम जहाँ हो दर असल उस जगह पर तुम हो नहीं
कितने बच्चे हैं? कहाँ के हो? यहाँ घर है कहाँ?
चार हैं, बिजनौर का हूँ, घर है मस्जिद में मियाँ
कोरमा जो लिख दिया मैंने तुम्हारे वास्ते
ख़ुद वो खा लोगे कि ले जाओगे घर के वास्ते?
सुन के वो चुप हो गया और मुझको ये अच्छा लगा
लड़खड़ा कर मैं उठा और भाव यह मन में जगा
एक चटोरे को नहीं उस पर तरस खाने का हक़
उफ़ नशा कितना बड़ा सिखला गया मुझको सबक़
घर पे जाकर लिख के रख लूँगा जो मुझमें हो गया
सोच कर मैं घर तो पहुँचा पर पहुँचकर सो गया
उठ के वह कविता न आई अक़्ल पर आई ज़रूर
उसको कितना होश था और मुझको कितना था सरूर