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नश्शा-सा पिलाए है महक उसके बदन की/ साग़र पालमपुरी

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नश्शा-सा पिलाए है महक उसके बदन की
मदहोश बनाए है महक उसके बदन की

नरगिस में चमेली में हिना में नहीं मिलती
जिस तरह की आए है महक उसके बदन की


युग बीते हैं गो उसको हमें अंग लगाए
याद आज भी आए है महक उसके बदन की


ख़्वाबीदा थी जो कब से तहे-गर्दिशे दौराँ
चाहत वो जगाए है महक उसके बदन की


ख़ामोश -से हो जाते हैं बुलबुल के तराने
जब भैरवी गाए है महक उसके बदन की

सोचा भी कई बार न अब उससे मिलें‍गे
रह-रह के बुलाए हैमहक उसके बदन की

छा जाए है मन-गगन पे सावन की घटा-सी
यूँ प्यास बुझाए है महक उसके बदन की


बेचैन फ़ज़ाओं में जो बिखराए है मस्ती
वो फूल खिलाए है महक उसके बदन की

होती नहीं महसूस कोई दूसरी ख़ुशबू
अहसास पे छाए है महक उसके बदन की

‘साग़र’ गए गुलशन में भी हम उसको भुलाने
साँसों से न जाए है महक उसके बदन की