नहीं आते अच्छे दिन ऐसे / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय
ढोल पीटने से नहीं आते अच्छे दिन
ढपली बजा कर गाने से भी कहॉ आते हैं वे दिन
लाने होते हैं अच्छे दिन
करने होते हैं उद्यम
उठाने होते हैं जोखिम
पालने होते हैं झमेले
सब छोड़ देते हैं साथ चलने होते हैं अकेले
महज भोंकने से नहीं भागते चोर
खटपट की संज्ञा में बढ़ता है बस शोर
कोई किसी का नहीं सुनता
चिल्लाते रहो चिल्लाते रहो
इन बातों का नहीं होता कोई ओर
तुम मचाते रहो शोर
तुम गाते रहो और
सुनो पढ़ना लिखना छोड़ कर
एक बार घूम आओ गांवों में भी
उनसे भी पूछ लो वे क्या चाहते हैं
कविता की शक्ल में गाली बकने से
होता है लांछित समय
कवि विदूषक बनकर करता है नृत्य
और छला जाता है परिवेश अपने स्वभाव में
सुनो जो करना चाहते हैं
तुम्हारे तड़क-भड़क से कुछ अलग
उन्हें करने दो अपने मन की
आगत की फसलों को रखेल बनाकर रखने से
समाज नहीं बनता है महान
जीवित जन के संभावनाओं को पग-पग कुचलने से
पूरा नहीं होता है अरमान
किसी का हक हड़पने से आदमी नहीं हो जाता है इंसान
इंसान बनने के लिए करना होता है परिश्रम
सहेजना होता है अपने हिस्से के सूरज को
और जाने देना होता है दूसरे के हिस्से में भी
उसके हिस्से की धूप
पहचानो
किसे जरूरत है शीतलता की
और किसे जरूरत है धूप की
निकलो बाहर बढ़ाओ कदम
तुम्हारे AC रोमों में बैठने से
बदलाव यहां कहीं नहीं आता
बढ़ाना पड़ता है कदम अपना परिवर्तन के लिए
बगैर परिणाम की चिंता किए