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नहीं जानती थी मैं कि मुझे इतना था प्यार / के. श्रीलता / राजेश कुमार झा

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मैं नहीं जानती थी कि खिड़कियों से मुझे था इतना प्यार,
लेकिन मुझे है प्यार खिड़कियों से इतना कि
खिड़कियों के लिए ज़मीन पर पटक सकती हूँ किसी को भी,
ताकि रोशनी फिर कर दे मेरी आँखों को सराबोर ।

मैं नहीं जानती थी कि ख़ाली पैर मुझे हैं इतने प्यारे,
या पसन्द है मुझे चलना नंगे पैर कहीं भी
जैसे अपने कन्धों पर लादकर दिल,
भिश्ती ले जा रहा हो मशक।

मैं नहीं जानती थी कि दिन की दोपहरी में,
कितने प्यारे थे मुझे शान्ति के छोटे छोटे टापू,
मगर मुझे पसन्द हैं ये —
क्योंकि लगते हैं वे पुराने दोस्तों की तरह ।

मैं नहीं जानती थी कि मुझे पसन्द है ये ख़याल
कि रात उतरती है थके परिन्दों की तरह,
जैसे कमरे से भीतर बाहर आते जाते पंछी और कविताएँ,
पसन्द हैं मुझे ।

पता नहीं था कि इतनी सारी चीज़ों से था मुझे प्यार,
अभी जब मैंने पढ़ा हिकमत को,
कर रही हूँ उन्हें आज़ाद,
एक एक कर ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : राजेश कुमार झा

लीजिए, अब यही कविता मूल अँग्रेज़ी में पढ़िए
                          K. Srilata
          Things I didn’t know I loved

            (after Nazim Hikmet)

I didn’t know I loved windows so much
but I do – enough to wrestle
someone to the ground over them,
so light can, once again, flood my eyes.

I didn’t know I loved bare feet so much,
or walking away on them to wherever point,
my heart slung over my shoulder
like a sheep-skin bag.

I didn’t know I loved small islands of quiet
in the middle of the day,
but I do – they feel like old friends.

I didn’t know I loved the idea
of night descending like a tired bird
or birds flying in and out of rooms and poems
but I do.

I didn’t know I loved so many things.
Only now that I have read Hikmet,
am I setting them free,
one by one.