भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नहीं पिघला / अर्चना अर्चन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सदाएं बेअसर सारी वो रत्ती भर नहीं पिघला
बहुत पिघलीं मेरी आंखें, मगर पत्थर नहीं पिघला

सुना था हमने लोगों से, बड़ा ही मोमिदल है वो
हुई पहरों तलक मैं राख, वो शब भर नहीं पिघला

खुदा का वास्ता देकर, मनाने की कवायद की
हमें उम्मीद थी पिघलेगा काफिर, पर नहीं पिघला

पिघलने को पिघल जाते हैं सूरज, चांद, तारे भी
दहकता तो रहा आतिशफ़िशां बाहर नहीं पिघला

मेरी तनहाइयों की आंच, सुलगाती रही मुझको
रहा तो बर्फ वो, फिर भी मुझे छूकर नहीं पिघला

सवालों और ख्यालों में उलझ कर रह गयीं सांसें
न था आसां समझ पाना कि वो क्यूंकर नहीं पिघला