भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नहीं बिसरते हैं बिसराए तेरे नयन सनीर, लजीले / हरिवंशराय बच्चन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नहीं बिसरते हैं बिसराए तेरे नयन सनीर, लजीले।

झलक उठा जिनमें वह सब जो
सोच-सोच मन कदराता था,
ललक उठा उनमें वह सब जो
नहीं अधर पर आ पाता था,
टपक पड़ा जिनसे वह जिसको
जग-मर्यादा बाँध रही थी,
नहीं बिसरते हैं बिसराए तेरे नयन सनीर, लजीले।

दूर क्षितिज तक फैले नीले,
शांत जलधि के गीले तट पर,
प्रात-किरण से उतरा करतीं
जो बूँदें उनकी आहट पर,
और झुके घन से जब मोती
की लड़ियाँ धरती को छूतीं,
बिंबित मेरे दृग में होते, प्रिय, तेरे आँसू चमकीले।
नहीं बिसरते हैं बिसराए तेरे नयन सनीर, लजीले।