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नहीं मालूम कितने हो चुके हैं इम्तिहाँ अब तक / 'वासिफ़' देहलवी

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नहीं मालूम कितने हो चुके हैं इम्तिहाँ अब तक
मगर तेरे वफ़ा-दारों की हिम्मत है जवाँ अब तक

ये तूफ़ान-ए-हवादिस और तलातुम बाद ओ बाराँ के
मोहब्बत के सहरा कश्ती-ए-दिल है रवाँ अब तक

कहाँ छोड़ा है दिल को कारवान-ए-आह-ओ-नाला ने
कि है आवारा मंज़िल यूसुफ़-ए-बे-कारवाँ अब तक

तलाश-ए-बहर में क़तरे ने कितनी ठोकरें खाईं
समझ लेता जो ख़ुद को बन ही जाता बे-कराँ अब तक

दिल-ए-बीमार को हम-दम हवा-ए-सैर-ए-गुल क्या हो
कि है ना-मोतदिल आब-ओ-हवा-ए-गुलिस्ताँ अब तक

अज़ल से गोश-ए-दिल में गूँजते हैं ज़मज़में तेरे
मगर ऐ दोस्त मैं ने तुझ को पाया बे-निशाँ अब तक

अयाँ अफ़्सुर्दगी-ए-गुल से है अंजाम गुलशन का
मगर ख़ून-ए-दिल-बुलबुल है सर्फ़-ए-आशियाँ अब तक