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नहीं रोक सकोगे जिस्म की इन परवाज़ों को / शहरयार
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नहीं रोक सकोगे जिस्म की इन परवाज़ों को
बड़ी भूल हुई जो छेड़ दिया कई साज़ों को
कोई नहीं मकीन नहीं आया तो हैरत क्या
कभी तुमने खुला छोड़ा ही नहीं दरवाज़ों को
कभी पार भी कर पाएंगी सुकूत के सहरा को
दरपेश है कितना और सफ़र आवाज़ों को
मुझे कुछ लोगों की रुसवाई मंज़ूर नहीं
नहीं आम किया जो मैंने अपने राज़ों को
कहीं हो न गई ज़मीन परिंदों से खाली
खुले आसमान पर देखता हूँ फिर बाज़ों को।