भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नहीं लौटना चाहता / महेश कुमार केशरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस बार नहीं लौटना चाहता
घर की ओर
नहीं लौटना चाहता उसी काम
वाली जगह पर
इस बार निकलना चाहता हूँ
नदी की ओर
नापना चाहता हूँ
उसकी गहराई
गिनना चाहता हूँ ,
रेत के ऊपर के पत्थर।
नापना चाहता हूँ नदी का वेग
नदी की तरह मेरी एक प्रेमिका भी थी।
नदी जिस वेग से बहती है
प्रेम करते समय उसकी छातियाँ भी
उसी वेग से धौंकतीं हैं
जैसे इस अषाढ़ सावन में
पूरे वेग से उफान मार रही है
नदी
मैं , गिनना चाहता हूँ
नदी पर पसरे रेत के असंख्य कणों
को
मेरे दोस्त मुझे पागल कहते हैं
मैं , लौटना चाहता हूँ
पहाड़ों की तरफ़
गिनना चाहता हूँ।
पहाड़ और पत्थरों के ऊपर
उग आये पेंड़ों को।
तनिक नहीं बहुत देर तक
मैं सुस्ताना चाहता हूँ
सुस्ताना नहीं सोना चाहता हूँ।
पहाड़ के नीचे
पेंड़ों की ओट में
गिनना चाहता हूँ , एक एक कर
पहाड़ पर उग आये पेंड़ों और
और पूरे पहाड़ी शृंखला को
नापना चाहता हूँ
जँगल और उसके ओर छोर को
सुनना चाहता हूँ।
प्रकृति का संगीत
अब दुनायावी चीजें
नहीं बाँध पातीं मुझे
अब नहीं लौटना चाहता कभी घर की ओर