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नहीं होतीं बहारें नग़मा—ख़ाँ जब तुम नहीं होते / सुरेश चन्द्र शौक़
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नहीं होतीं बहारें नग़मा—ख़ाँ जब तुम नहीं होते
बड़ा बेकैफ़ होता है समाँ जब तुम नहीं होते
मिरे दिल की तमन्ना पर मिरी शाख़े—नशेमन पर
गिरा करती हैं ग़म की बिजलियाँ जब तुम नहीं होते
मसर्रत का,सुकूँ का,सब्र का,राहत का, इशरत का
नहीं मिलता कहीं नामो—निशाँ जब तुम नहीं होते
सुलग पड़ते हैं ग़ुंचे, पत्तियाँ शोले उगलती हैं
झुलस जाता है सारा गुलसिताँ जब तुम नहीं होते
हमारा जी जलाती हैं , हमें पहरों रुलाती हैं
हमारी बेसरो—सामानियाँ जब तुम नहीं होते
इसे कितना भी समझाओ, इसे कितना भी बहलाओ
नहीं होता मगर दिल शादमाँ जब तुम नहीं होते
नग़माँ—ख़ाँ—गीत गाना;बेकैफ़=बेमज़ा;शाख़े—नशेमन=घोंसले वाली टहनी;बेसरो—सामानियाँ=बरबादियाँ;शादमाँ=प्रसन्न.