नहीं होती है नदी-रेखा / कल्पना दुधाल / सुनीता डागा
विलुप्त हुई नदी में
नमी ढूँढ़ते हैं हम
और फिर होता यह है कि
तपती बालू पर ढले हुए आँसुओं को
सूखते हुए देखना पड़ता है
नदी के भँवर में चक्कर काटते हैं
बालू-मिट्टी के कण
वैसे चक्कर काटते हैं इनसान भी
और नहीं लौटते हैं पुनः भँवर से
तब प्यासे पानी की भूख है यह
यही सोचकर कह लेते हैं हम
उलटे प्रसव से जन्मे इनसान पसन्द हैं नदी को
नदी के दिखाई देते ही
छूट जाती है साँसों की साँसें
कई-कई आवाजें
और कहना ही शेष रहता है पीछे
बह जाते हैं ईर्ष्या-द्वेष-लड़ाई-बखेड़े
एक पिता बहा देता है
कन्धे पर हाथ डालते बेटे की अस्थियाँ
और अन्तिम यात्रा की ख़ातिर
रोटी की गठरी
अंजुली भर रेजगी डालकर
रो उठता है दहाड़ मारकर
पुकारता रहता है निरन्तर
जैसे सूखी हुई नदी आवाज़ देती रहती है
पानी के लिए
जाना-पहचाना स्कार्फ़ और चप्पल
अटकते हैं झंखाड़ों से
कुछ भी तो नहीं मिलता है बाक़ी कुछ
और बह जाती है लड़की नदी बनकर
भूलना चाहकर भी
कहाँ भूल पाते हैं हम इसे
सूखे शुष्क शैवालों में
छटपटाते रहते हैं जीव-जन्तु
जीने की ख़ातिर
तब पाइप से पाइप को जोड़ते हुए
हम पहुँचते हैं नदी के डोह तक
और खींच लाते हैं पानी खेतों तक
पहली फ़सल का ढेर लगते ही
पहला कौर अर्पण करते हैं नदी को
पुलिया से गुज़रते हुए रेजगी फेंकते हैं पात्र में
नदी से हमें मिली ख़ुशहाली का अंश समझकर
घर वालों के उलाहनों से अपमानित लोग
बकबक करते रहते हैं नदी के साथ
और मुँह पर पानी का हाथ फेरकर
फिर से दिखाती है नदी हँसते हुए घर का रास्ता
नदी ले आती है आधा शहर गाँव में
और धोते रहते हैं गाँव वाले घिस-पटक कर
अपना उज्जडपन
जो दिखाई तो देता है निकला हुआ
पर चिपकता जाता है और भी अधिक
जिस गाँव में नहीं होती है नदी
वहाँ के लोग जाते हैं नदी की ख़ातिर
नदी के गाँव
होती है उन्हें ईर्ष्या नदी से
और बाढ़ के आते ही
इतराते हैं वे मूँछों को ऐंठकर कि
नहीं है उनके जितना सुखी कोई
हवाई जहाज़ से रेखा दिखती नदी
नहीं होती है मात्र रेखा
होती हैं कई-कई कहानियाँ
सुख-दुख की
जिन्हें कितना भी सुनाते जाइए
फिर भी रहती ही हैं शेष !
मूल मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा