भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नांगी पिरथी ढ़काणी / महेंद्र सिंह राणा आज़ाद
Kavita Kosh से
चौमासी कुहेड़ी नांगी पिरथी ढ़काणी
धरती की लाज अब नि रै बिराणी।
द्वी-चार मैना यी कुहेड़ी ढ़काली
आवा अग्वाड़ी अब हमुन भी बचाणी।
चौमासी कुहेड़ी द्वी-चार मैना ही राली
धै लगावा अब त बारमासी खुज्याणी।
जाग रे भैजी, दादा-काका अर दीदी
कर उदैँकार अब सैरी दुनिया जगाणी।
हाथु मा हाथ द्ये, अर खै ल्ये कसम
इत्गया सुन्दर बनाण कि दुनिया दिखाणी।