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नाई बहार / 14 / भिखारी ठाकुर

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प्रसंग:

भिखारी ने 'भिखारिया' या ऐसे ही अपमानजनक शब्दों के विरोध का प्रयास किया है।

सवैया

1.

पाप के ताप संहारनहार हमार सो नाई, भाई कहलावत।
सित धूप परे, मेघवा, झमरे तिन काल बेहालत होकर धावत।
जजमान के काम तमाम करें, घर में घरनी देवता गोहरावत।
सबका छवि के जे शृंगार करे, तेकरा के रेकार बेकार जनावत॥
नजरी पर नाचत बा सबका घर, बाहर जे जहवाँ बाटे जवन।
जजमान के मान सदा दिन गावत, सादी-सराध, करावत गवन॥
अधिक देखि के कइ सालन से, ठहरे रहीं जात बानी हम मवन।
कहे नाई 'भिखारी' दाय कर भाई रेकार कहे से हमार ह कवन॥

वार्तिक:

धर्म क्षेत्र पुर बाबू दीनबन्धु सिंह का पिता के काम में पुरोहित दिनेश तिवारी, महापातर दयालु पान्डे, नाई दिगम्बर ठाकुर दसवां में दयालु पाड़े का मिलल, नगद दस बारह-रुपया, सेज्या, बस्तर, बर्त्तन, छाता, जूता, खराऊ, सीधा, अनाज, सवा कट्ठा खेत; दिगम्बर ठाकुर का नगद रुपया के एक सीधा। पितर मेरवनी में दिनेश तिवारी का मिलल नगद बारह रुपया, सेज्या, बस्तर, वर्त्तन, जूता, छाता, खराउँ, सीधा, अनाज, सवा कट्ठा खेत; दिगम्बर ठाकुर का नगद एक रुपया, एक सीधा मिलल। काम भइली का बिहान भइला दिगम्बर ठाकुर के मतारी अपना नइहर से अइली। बेटा से पूछली-'बबुआ कतिना मिलल हा।' दिगम्बर ठाकुर सब हालत कहलन। दिनेश तिवारी का दयालु पाड़ का जतिना मिलल से।

चौपाई

श्री गणेशनन्दन गौरी कर तेही के चरन कमल सिर धरकर।
चौपाई के रचना होता। ध्यान देकर सुनहू सरोता॥
तीनो जना का मिलल जतीना। सकल भेद कही दीहलन ततीना॥
फेकरि-फेकरि कर रोअत माई. अब हम करब कवन उपाई॥
एक रुपया के कतीना अन्न। मिली जे तूँ भइल धन-धन॥
काहे लिहल अतीना कम। कतीना चाउर बेसाहब हम॥
पाँचगो लरिका के बा खरचा। बूढ़े-जवान के फरक बा चरचा॥
सिर पर चढ़त बा महंगी भारी। बेटा से झगड़त महतारी॥
जजमनीका में कुछ ना बाटे। लगबऽ सीलवट-लोढ़ा चाटे॥
नगदा जाके कमइहऽ बाहरा। रहे ना दीही अकाल के पहरा॥
चिट्ठी नेवता चारू ओर। चइत के मंगिआ गइल मोर॥
दूगो रुपया देत रोजना। तब कसहूँ मिलत एक जाना॥
सगरो धउरल फिरल पूता। उपर छाता ना गोड़ में जूता॥
जजमनीका के कहल मोर। एही से गला कटाइल तोर॥
एह से नीमन वाड़न बनिहारा। केहू नइखे देखिनीहारा।
कहत 'भिखारी' सुनहु एक बाता। जजमनीका से राखहु नाता॥
कहियो समुझ परी एक बारा। तब सब दुख होइ जरिछारा॥
ई सब दुःा कहब हम गाई. सब सज्जन का शरन में जाई॥
पशु-पक्षी के थोरहूँ में थोरी। तसहीं होंइ कहब कर जोरी॥

दोहा

राम नाम रटते रहऽ, खटते रहीहऽ नीत।
जजमनीका हित सहते रहीह, गिरी घाम-बरखा-सीत॥
चौपाई

दोष पुरोहित के कछु नाहीं। लउकत बा जजमान ही नाहीं।
काग-बल निकसत बाटे जबहीं। समुझ परल पट्टीदारी तबहीं॥
तीनों भाग बरोबर जइसे। काग-कुत्ता-गाइ कर तइसे॥
तइसे नाइ महापातर के पूज्य पुरोहित जे घर भरके॥
अब मुँह देखल होखत बाटे। नाई उतरिहन कवना घाटे॥
जब नाइ कर कुशल चहबऽ। तब सज्जन सरिआइ के कहबऽ॥
सब जजमान समुझि मन लेहु। नीके नक्शा देखी कर देहु॥
कहवाँ लिखल बा कमती-बेसी. दया करहु सज्जन उपदेशी॥
ऊँच-नीच के भेद न मानत। जे बा चार बेद के जानत॥
कुत्ता, काग साथ में गाई. पावत भाग बरोबर भाई॥
ब्राह्मण महापात्र ओ नाई. जावत पातक करत सफाई॥
हक में बेसी-कमती भइल। कहवाँ बा लिखी के कब से धइल॥
पिण्डा एकादश दशगातर। नाई साथ कइलन महापातर॥
पुरोहित कइलन पितर-मेरवनी। साथे नाई दिगम्बर पवनी॥
महापातर का मिलल दस। एक रुपया में नाइ बस॥
बारह रुपया पुरोहित लिहलन। खुशी सहित दीनबन्धु दीहलन॥
दिगम्बर का एक रुपया। घर अइला पर पूछली मइआ॥
माई कलपत कहि-कहि बानी। केकर का कइलीं नोकसानी॥
जे जजमान हमार कहावत। तेकरा दिल में दया ना आवत॥
जजमनीका के कइके बन। भूखे मरत बारन लरिकन॥
खोजऽ महाजन काढ़ऽरिन। मिली मजूरी बरिसवाँ दिन॥
जजमनीका के लेके चाटी. टूटल बा दुआर के टाटी॥
मइया के दुःख गावल गाइके. कहते 'भिखारी' अवसर पाइके॥

दोहा

सावन-भादो पानी बरषी, कब छवाई घर।
जजमनीका के कारण, छुट्टी नइखे घरी-पहर॥
कहत 'भिखारी' कइसे कहीं, पावत नइखी पार।
दया दृष्टि से देखिये, ऋषि अठासी हजार॥