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नाक / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
सुग्गे के ठोढ़ की तरह थी
उनकी नाक
उनके चेहरे पर दूर से
दिखाई देती थी
वह ओंठ की ओर झुकी हुई थी
जैसे ही वे चेहरा उठाते
बरबस नाक नज़र आती थी
इसी तरह उनके पिता की नाक थी
उन्हें अपने पिता से बुद्धि नही
नाक विरासत में मिली
पिता की तरह वे आनेवाले संकट को
सूँघ लेते थे
वे चेहरे से नही नाक से पहचाने
जाते थे
हज़ारों की भींड़ में उनकी नाक
अलग थी
सोते समय उनकी नाक से तुरही की
आवाज़ निकलती थी
लोगों का सोना मुहाल हो
जाता था
उनके पिता ने कहा था कि यह नाक
बचाए रहना – यह तुम्हारी नहीं मेरी
भी नाक है
एक दिन वे एक स्त्री के साथ
आपत्तिजनक मुद्रा में पाए गए
लोगों ने कहा – वे सब कुछ तो
गँवा चुके हैं, कम से कम अपनी नही
पिता की नाक बचा लेते