भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नागिन अइसन डँसत अन्हरिया, कबहीं ना भिनसार भइल / सूर्यदेव पाठक 'पराग'
Kavita Kosh से
नागिन जइसन डँसत अन्हरिया, कबहीं ना भिनसार भइल
कटलो से ना कटत उमरिया, छन-छन जिनगी भार भइल
कबहूँ पेट भरल ना आपन, करत मजूरी-बेकारी
फाटल कपड़ा पहिरत अबले, सउँसे देह उघार भइल
भाखन सुनलीं लमहर-लमहर, रासन भइल नदारत बा
टुकड़ा-टुकड़ा रोटी खातिर, लड़िकन सन में मार भइल
आन्ही में छप्पर उधियाइल, खर्र-पतहर ना मिलल कहीं
घर-आँगन में लागल पनियाँ, बरखा मुसलाधार भइल
जीतल चोर चुहाड़े अबले, बम से, चाहे लाठी से
मेहनत आ ईमान-धरम के डेगे-डेगे हार भइल
अपना हक खातिर भइया हथवा पइयाँ मजबूत करऽ
हक खातिर लड़के कुछ पइबऽ, जुग के आज पुकार भइल