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नाज़ो-अदा की चोटें सहना तो और शै है / साक़िब लखनवी

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नाज़ो-अदा की चोटें, सहना तो और शै है।
ज़ख़्मों को देख लेता कोई, तो देखता मैं॥

बर्क़े जमाले-वहदत! तू ही मुझे बता दे।
शोला तो दूर भड़का, फिर किसलिए जला मैं?