नाटक / अनिता मंडा
एक टॉफ़ी के लिए आँखें मटका
तोतली आवाज़ में
कविता सुनाते बच्चे
सीख रहे हैं अनजाने ही
नाटक नित नए-नए
होमवर्क पूरा न होने पर
कुशलता से करते हैं
पेटदर्द का बहाना
कि छुट्टी की सिफारिश कर देती हैं दादी
छुटकी का माँ ने धीरे से कान क्या खिंच लिया
रोना चुप्प नहीं होगा घन्टे भर तो पक्का
चीकू का घुटना कितना बुरी तरह छिला हुआ है
पूछो तो टाल देगा-
पता नहीं कैसे लग गई
सोचना नहीं चाहता मन
निभायेंगे ये भी कभी
विवशताओं के किरदार
डर के साये की कालिख़
धुंधला देगी चेहरे की चमक
इनकी खनकती आवाज़
करेगी आस-पास पसरे मौन का अनुवाद
ज़रा भी सोचना नहीं चाहता मन
कि ये भी होगा
स्कूलों को जलाती आग
सिर्फ़ दरवाजे खिड़कियाँ नहीं
संस्कृति को भी जला देती है
मौन कुछ भी नहीं सहेजता
अगली पीढ़ी के लिए
आवाज़ जीवित होने का सबूत है