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नाथ! अब कैसे हो कल्याण / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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नाथ! अब कैसे हो कल्याण।
प्रभु-पद-पंकज-विमुख निरन्तर रहते पामर प्राण।
पर सुख-कातर महामलिन मन चाहत पद निर्वाण॥

सत्य, अहिंसा, प्रेम, दया सब कर गये दूर प्रयाण।
लगा हृदयमें द्वेष-घृणा-हिंसाका बेधक बाण॥
भेद-बुद्धिसे भरा हृदय सब भाँति हु‌आ पाषाण।
आत्मभावना भूल वैरपर सदा चढ़ाता शाण॥
लगा कामना-भूत भयानक, मिटा धर्म-परिमाण।
उभय-भ्रष्टस्न् हु‌आ बनकर अब पशु बिनु पूँछ-विषाण॥
श्रुति-स्मृतिकी करता अवहेला, पढता नहीं पुराण।
प्रभो! पतित इस अधम दीनका तुम्हीं करो अब त्राण॥