भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नानी माँ / रेखा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नानी मां!
      काशी की तरह
      किसी सनातन सत्य-सी
      वर्तमान हो तुम
       मेरे अंर्तमन में।
अतीत के पिछवाड़े
        झाँक पाती हूँ वहीं तक
        जहाँ तक हमारी आँखों की
         खिड़की खुलती है।

यूं तो पढ़े हैं मैंने
        इतिहास के भीमकाय ग्रंथ
    पर उनमें जीये-मरे
        सभी पात्र-
        लगते हैं बहुत अनजाने
        युद्ध-क्षेत्र अत्यंत बेगाने
कहीं भी तो आती नहीं
        मेरी, तुम्हारी, अम्मा की बात
कहीं भी तो होता नहीं
        उस गली का ज़िकर
        जहाँ से गुजरी थी कभी
        मेरी, तुम्हारी और अम्मा की डोली।

नानी मां!
        इतिहास के सभी ग्रंथों से
        अधिक सच हो तुम-
एक ऐसी कहानी
        जिसका हर सुख-हर दुख
       कदम-कदम बीतकर
       तुम्हारी उम्र के साथ पक गया है।
वक्त के हल ने
        जोता है तुम्हारा चेहरा
        किसी रेतीले खेत की तरह
       वही वक्त-रेत की लहरों सा
       ठहर गया है-
       तुम्हारे चेहरे की झुर्रियों में।
तुम गांव की पुरानी
         हवेली हो नानी!
जब से लाँघा है तुमने
इस हवेली का तोरण द्वार
तुम हो गई हो स्वयं हवेली
      कितनी गहन-कितनी विविध।
हर आंगन-हर गलियारे
हर खिड़की-हर कमरे
हर सीढ़ी-हर चौबारे
आज भी चौंका देती है
तुम्हारी लाल-हरी चूड़ियों की खनक
जहाँ पाँवों से लिपटा वक्त
घुंघरू सा रुन-झुन बजता रहता है।
चरखे पर पूनी सा-
       कातत हो तुम-
वे सारे मूल्य-सभी परंपराएं
जिन्हें हर बेटी-हर नातिन को-
उपहार दिया तूने-ब्याह के जोड़े-सा।

तुम पनघट पर खड़ा
    पीपल हो नानी!
अपने-अपने आकाश से उड़कर
हम सब लौट आते हैं
तुम्हारी असंख्य टहनियों में
साँझ ढले गाने को
अपने दीपक-मल्हार।
जब तुम सबके संग गाती हो नानी!
     तुम्हारा बूढ़ा शरीर
       हो जाता है एक सारंगी
        हर तरंग से तरंगायित।
बचपन के जिस आंगन में
    रचायें गुड़िया के ब्याह
तुम्हीं थी वह तुलसी का विरवा
जो सपनों के राजा संग
पड़ती हर भांवर को
     कर देती थी इतना पावन।
   किसी पुरानी आस्था की तरह-
जब किसी कुलबुलाई भूख ने
   रौंद-रौंद डाला मुझे
तुम रसोईघर बन प्रस्तुत थी नानी!
  रोटी के छिक्के-सी गमकती
     सरसों के साग की हाँडी सी
        सदा आग पर तपती-महकती।
मील के पत्थरों में
   दौड़ रहा है वक्त
एक संदर्भ से दूसरे संदर्भ तक
पर तुम चैक पोस्ट सी जब-तब रोक लेती हो-
फिर-फिर लौटती हूँ तुम्हारे पास-
  जैसे भरी दुपहरी ले आए कोई प्रखर प्यास
     मन्दिर के बाहर, प्याऊ के पास।

हवेली नहीं है आज नानी!
चार दीवारों पर टंगा यह
व्यक्तित्वहीन फ्लैट है-
घर के आगे मैंने भी सजाए हैं कैक्टस
    यह चलन है इस शहर का
पर घर का पिछवाड़ा-
जो नितांत मेरे अपना है
वहाँ अब भी मौजूद है
वही तुलसी का बिरवा।
खरीदे हुए नटराज
फ्रीज हो गए हैं, मैटलपीस पर
वह मंत्रपूत गौरा
   जो तूने दी थी दहेज में-
वह अब भी सुरक्षित है
   मेरी बेटी के दहेज के लिये।

तुम्हारा चेहरा-
    दर्पण हो गया है नानी!
जिसमें देखती हूं मैं
   अस्सी साल पुराना अपना चेहरा
फिर उस चेहरे में झांकती है
   मेरी बिटिया
      फिर उसकी बिटिया।