नारी, धन्य हो तुम / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
नारी, धन्य हो तुम
घर है, घर का काम धन्धा भी।
उसमें रख छोड़ी है दरार कुछ थोड़ी सी।
वहां से कानों में आ प्रवेश करता
बाहर के दुर्बल को बुलाती हो तुम।
लाती हो शुश्रूषा की डाली,
स्नेह उँड़ेल देती हो।
जीव लक्ष्मी के मन में जो पालन की शक्ति है विद्यमान,
नारी तुम् नित्य ही सुना करती हो उसका आह्यन।
सृष्टि विधाता का
लिया है कार्य भार,
हो तुम नारी
उनकी निजी सहकारी।
उन्मुक्त करती रहती हो आरोग्य का पथ,
नित्य नवीन करती रहती हो जीर्ण जगत
श्रीहीन जो है उस पर तुम्हारे धैर्य की सीमा नहीं,
अपने असाध्य से वे ही खींच रहे है दया तुम्हारी,
बुद्धिभ्रष्ट असहिष्णु करते हैं बार बार अपमान तुम्हारा,
आँखें पोंछकर फिर भी तुम करती हो क्षमा उन्हें देकर सहारा।
अकृतज्ञता के द्वार पर आघात सहती हो दिन-रात,
सब कुछ लेती हो झुका मस्तक और फैला हाथ।
जो अभागा आता नहीं किसी काम में
प्राण छक्ष्मी जिसे फेंक देती है घूरे में,
उसे भी लाती हो उठाकर तुम,
लांछना का ताप उसका मिटाती हो
अपने स्निग्ध हाथ से।
देवता पूजा योग्य तुम्हारी सेवा है मूल्यवान
अनायास ही उसे तुम अभागे को कर देती दान।
विश्व की पालनी शक्ति की धारिका हो तुम शक्तिमती
माधुरी के रूप में।
भ्रष्ट जो हैं, भग्न जो हैं, जो हैं विरूप और विकृत
उन्हीं के निमित्त हो तुम सुन्दर के हाथ का परम अमृत।
‘उदयन’
प्रभात: 13 जनवरी, 1941