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नारी / समीर बरन नन्दी
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कलसी में ठण्डा पानी
उसी से होती है हवा में नमी
छाया भी, माया भी, मिटटी का मर्म भी ।
तुम्हे अपने घर ले चलूँगा
वातायन से दिखाऊँगा -- बादल
तोते उड़ते, सप्तऋषि देखो...
माँ-बाप लिखो, मुहब्बत लिखो ।
वह सिखाती है अन्तर के शब्दों में बतियाना..
अचानक तुम मिलती हो कहीं जंगल में
ज्योति में जैसे । शहर के तालाब के ऊपर चाँद उगता है...
दिखाई देती है
शिशु की सक्रिय उँगुलियों की तरह बहती शाम की नदी ।
मै तो लाख मुसीबत में भी छू लूँ तुम्हें ।
ऐसे ही कभी मुलाक़ात हो जाए तो
काँसवन के जड़ में बादल समा आता है
जो भो हो, रहो नींद में सबसे क़रीब की घास पर ।