नाविकी / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
हेमन्त ख़त्म हो गया है पृथ्वी के भंडार में,
और ऐसे कई हेमन्त ख़त्म हो गये हैं समय के कुहासे में,
बार-बार फ़सल
घर ले जाते-जाते, समुद्र पार के बंदरगाहों पर
पहुँच जाते हैं।
आकाश के मुखामुखी उस तरफ़ की मिट्टी जैसे सफ़ेद बादलों की प्रतिमा
इधर कर्ज़, खून, नुक़सान, गन्दगी, भूख और
कुछ नहीं-फिर भी अपेक्षातुर
हृदय में स्पन्दन है, तभी रहता है डर
पाताल की तरह देश को पीछे छोड़कर
नरक की तरह इस शहर में
कुछ चाहता है,
क्या चाहता है?
जैसे कोई देखा था-खण्डाकाश जितनी बार परिपूर्ण नीला हुआ
जितनी बार रात आकाश भरे स्मरणीय नक्षत्र हैं उगे
और उनकी तरह जितनी बार नर-नारियों
जैसा जीवन चाहा था,
जितने थे नीलकंठ पक्षी, उड़ गये हैं धुपैले आकाश में
नदी और नगरी की
मनुष्य की प्रतिश्रुति की राह पर जितना
निरुपम सूर्यलोक जल उठा है-उसका
क़र्ज़ चुकाने को छाया हुआ है इसी अनन्त धूप का अन्धकार।
मानव का अनुभव ऐसा ही है।
बहुत सही हो तो भय होता है?
पहले मृत्यु व्यसन लगती थी?
अब कुछ भी व्यसन नहीं रहा।
आज सभी इस शाम के बाद तिमिर रात्रि में
समुद्री यात्रा की तरह
अच्छे-अच्छे नाविक और जहाज़ों से दिगन्त घूमकर
दुनिया भर के तमाम मुल्कों के बेसहारा सेवक की तरह
परस्पर को हे नाविक, हे नाविक कहकर-
समुद्र ऐसा साधु, नीली होकर भी महान मरुभूमि,
वैसे ही हम लोग भी कोई नहीं-
उन लोगों का जीवन भी
वर्ग, लिंग, ऋण, रक्त, द्वेष और धोखाधड़ी
ऊँच-नीच, नर-नारी, नीति-निरपेक्ष होकर
आज मानव समाज की तरह एकाकी हो गया है।
चुप्पा नाविक होना ही अच्छा,
हे नाविक, हे नाविक, जीवन अपरिमेय है क्या?