नाविक, अड़ो न अपनी ताव में / सच्चिदानंद प्रेमी
नाविक! अड़ो न अपनी ताव में,
मुझको भी तो ले लो अपनी
खुलने वाली नाव में ;
जगह तनिक मैं यार न लूँगा,
तन का क्या मन भार न दूंगा ;
जो कहोगे वह सब सहूंगा ;
बन्धु,नहीं अब यहाँ रहूँगा ;
मेला तो घनघोर यहाँ है,
भीड़-भाड़ अति शोर यहाँ है,
पर मै तो कुछ बेच न पाया-
घूम-घाम दिन ब्यर्थ गवायाँ-
मोल-तोल में शाम हो गई-
मिला न कुछ भी भाव में।
पास रहा जो बचा न पाया,
गुण-अवगुण कुछ काम न आया ;
वाट-घाट तक फेरी डाली,
बिका,दाम भी हाथ न आया ;
ले लेना कुछ उतराई जो-
बचा सका कर चतुराई जो-
सच कहता जो कुछ है तन-धन-
नहीं मुझे कुछ है ले जाना-
नदी पार उस गाँव में।
ठाट-हाट भी उखड़ा-उखड़ा,
बाट-बाट जन-गण है उमड़ा,
बिखरा पसरा सबका असरा,
आस-पास परिजन का नखरा,
चला समेटे खाट मदाड़ी-
भालू-वनरी- ठाट मदाड़ी-
मांझी! सब आते ही होंगे-
ढोंगी-पंडित सिद्ध अनाड़ी ;
हुई देर तो भीड़ बढ़ेगी-
मांझी!
तरणी गली पुरानी भी है
बांध न आफत पाँव में।