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नाविक ’विद्रोहियों’ पर बमबारी : बम्बई १९४६ / शमशेर बहादुर सिंह
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अल्जीरियाई वीरों को समर्पित, 1961
लगी हो आग जंगल में कहीं जैसे,
हमारे दिल सुलगते हैं ।
हमारी शाम की बातें
लिए होती हैं अक्सर ज़लज़ले महशर के; और जब
भूख लगती है हमें तब इंक़लाब आता है ।
हम नंगे बदन रहते हैं, झुलसे घोंसलों से
बादलों सा
शोर तूफ़ा॒नों का उठता है —
डिवीज़न के डिवीज़न मार्च करते हैं,
नए बमबार हमको ढूँढ़ते फिरते हैं ...
सरकारें पलटती हैं जहाँ हम दर्द से करवट बदलते हैं ।
हमारे अपने नेता भूल जाते हैं हमें जब,
भूल जाता है ज़माना भी उन्हें, हम भूल जाते हैं उन्हें
ख़ुद ।
और तब
इंकलाब आता है उनके दौर को ग़ुम करने ।