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नाव बढ़ रही थी सोच रहे थे / राघव शुक्ल
Kavita Kosh से
नाव बढ़ रही सोच रहे थे
उतरेंगे किस पार किनारे
दो भागों में नदी बँट गई
और हो गए चार किनारे
संयम रखकर ध्यान लगाया
और दूर तक दृष्टि जमाई
उसी दिशा में नाव मोड़ दी
जिधर रोशनी पड़ी दिखाई
पर नदिया बँटती ही जाती
दिखे नए हर बार किनारे
सोचा यही नियति की इच्छा
हम पतवार नहीं छोड़ेंगे
अगर किनारे साथ ना देंगे
हम भी नाव नहीं मोड़ेंगे
अब धारा से प्यार हो गया
नहीं हमें स्वीकार किनारे
हुई अंत में विजय हमारी
गए युद्ध में हार किनारे
हवा ले गयी साथ,मिले फिर
स्वागत में तैयार किनारे
आँखें चमकी दिखी सामने
मूंगे की दीवार किनारे