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ना जाने मैं कितना रोया / नागेश पांडेय ‘संजय’

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ना जाने मैं कितना रोया,
तब जाकर ये गीत बने,
तुम कहते हो और लिखो।


अंतर में जब धधकी ज्वाला,
पी न सका जब विष का प्याला।
अपने ही जीवन को साथी
जब अपने कंधों पर ढोया,
तब जाकर ये गीत बने,
तुम कहते हो और लिखो।


लगा न कुछ अब शेष रह गया,
केवल औघड़ वेश रह गया।
तुमको पाने की चाहत में
खुद को जब तिल-तिल कर खोया,
तब जाकर ये गीत बने,
तुम कहते हो और लिखो।


मन के सुख वीरान हुए जब,
अपने हक मेहमान हुए जब।
सपनों की टूटी किरचों को
हँस-हँस कर सीने में बोया,
तब जाकर ये गीत बने,

तुम कहते हो और लिखो।