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निन्द्य-नीच, पामर परम, इन्द्रिय-सुखके दास / हनुमानप्रसाद पोद्दार

निन्द्य-नीच, पामर परम, इन्द्रिय-सुखके दास।
करते निसि-दिन नरकमय बिषय-समुद्र निवास॥
नरक-कीट ज्यों नरकमें मूढ़ मानता मोद।
भोग-नरकमें पड़े हम त्यों कर रहे विनोद॥
नहीं दिव्य रस कल्पना, नहीं त्याग का भाव।
कुरस, विरस, नित अरस का दुखमय मन में चाव॥
हे राधे रासेश्वरी! रस की पूर्ण निधान।
हे महान महिमामयी! अमित श्याम-सुख-खान॥
पाप-ताप हारिणि, हरणि सत्वर सभी अनर्थ।
परम दिव्य रसदायिनी पचम शुचि पुरुषार्थ॥
यद्यपि हैं सब भाँति हम अति अयोग्य, अघबुद्धि।
सहज कृपामयि! कीजिये पामर जनकी शुद्धि॥
अति उदार! अब दीजिये हमको यह वरदान।
मिले मजरी का हमें दासी-दासी-स्थान॥