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नियति / मदन गोपाल लढ़ा
Kavita Kosh से
दर्द रची रेत
चारों तरफ पसरी है
तपती
आग उगलती
नहीं दिखता दूर तक
कहीं कोई खेजड़ा
जिसकी छाँव तले
बैठकर सुस्ता लूँ
कुछ पल।
गरम लू की साँय-साँय
डरावनी लगती है
उजाड़ मरूस्थल के
सूनेपन में
ढूँढूं भी तो कहाँ-
खुशी का शीतल जल।
प्यास है चिरंतन
मैं मृग
और भागना है
जीवन भर।