भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नियति / मोहन साहिल
Kavita Kosh से
जुते बैल को मालूम है अपनी नियति
कोई फर्क नहीं पड़ता उसे
कंधों पर शमाई रहे न रहे
उसकी चाल वही रहेगी
अक्सर उसकी रफ्तार तेज कर देता है
पीठ पर पड़ा डंडा
एक क्षण के लिए अपनी विवशता को कोसता
झुंझला उठता है बैल
रोज देखता है वह सामने फैली हरी-भरी चरागाह
जिसे चर जाएँगे इस बरस भी निठल्ले जानवर
वह हमेशा की तरह फाड़ेगा धरती
और केवल अपने हिस्से का चारा खाकर
हो जाएगा संतुष्ट
खेत से घर लौटते
पगडंडी के आसपास घूमते निठल्ले
उड़ाते हैं उसका उपहास
मगर वह चुपचाप गुजरता है
किसान के बच्चों की हँसी सुनता बैल
पसर जाता है पशुशाला में
अपने ज़ख़्मी कँधे चाटने का करता है प्रयास।