भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नियति / रंजना गुप्ता

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मै नियति की
क्रूर लहरों पर
सदा से ही
पली हूँ ...

जेठ का हर
ताप सह कर
बूंद बरखा की
चखी है..
टूट कर हर बार
जुड़ती
वेदना मेरी सखी है..

मैं समय की
भट्टियों में
स्वर्ण सी पिघली
गली हूँ ..

मैं नदी संवेदना की
नत मुखी
बहती रही हूँ..
रक्त लथपथ
पत्थरों से
चोट खा खाकर
बढ़ी हूँ..

धार पर तलवार के
सौ बार मैं
बिछली चली हूँ ..

मैं नही सम्बन्ध की
मौलिक कोई
स्थापना हूँ ...
जो मिला जी भर
ह्रदय से
मैं उसी की
याचना हूँ...

बस सुबह की
ओस सी गहरे
अंधेरों में ढली हूँ….