निरंकार / गढ़वाली लोक-गाथा
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ओंकारं सतगुरू प्रसाद,
प्रथमे ओंकार, ओंकार से फोंकार,
फोंकार से वायु, वायु से विषंदरी<ref>बादल</ref>,
विषंदरी से पाणी, पाणी से कमल,
कमल से ब्रह्मा पैदा होइगे।
गुसैं<ref>भगवान</ref> को तब देव ध्यान लैगे,
जल का सागरू मा तब गुसैं जी न,
सृष्टि रच्याले।
तब देन्दो गुसैं ब्रह्मा का पास-
चार वेद चौद शास्तर, अठार पुराण,
चौबीस गायत्री।
सुबेर पढद बरमा, स्याम भूली जांद।
अठासी हजार वर्ष तब ब्रह्मा,
नाभि कमल मारैक वेद पढ़दो।
तब चारवेद, अठार पुराण, चौबीस गायत्री
वैका कंठ मा आइ गैन।
वे ब्रह्मज्ञानी तब गर्व बढ़ी गये-
वेद शास्त्रों को धनी होईग्यूं,
मेरा अग्वाड़ी कैन होण?
मैं छऊँ ब्रह्मा सृष्टि को धनी।
तब चले ब्रह्मा गरुड़ का रस्ता,
पंचनाम देवतो की गरूड़<ref>गरुड़ पर्वत</ref> मा सभा लगीं होली
बूढ़ा<ref>बूढ़ा केदार, एक धार्मिक स्थान</ref> केदार की जगा बीरीं होली।
सबूक न्यूतो दियो वैन गसांई नी न्यतो।
वे जोगी कू हमन जम्मानी न्यूतण,
स्यो त डोमाणा<ref>डोमों के घर</ref> खै औंद, स्यो त कनो जोगी होलो!
तब पूछदो ब्रह्मा-कु होलो भगत।
नारद करद छयो गंगा माई की सेवा।
पैलो भगत होलू कबीर कमाल तब को भगत होलू!
तब को भगत होलू रैदास चमार!
बार वर्ष की धुनी वैकी पूरी ह्वै गए।
तब पैटदू ब्रह्मा गंगा माई का पास-
तुम जाणा छया ब्रह्मा, गंगा माई का दरसन!
मेरी भेंट भी लिजावा, माई कू देण!
एक पैसा दिन्यो वेन ब्रह्मा का पास,
तब झिझड़ांद ब्रह्मा-यो रेदास चमार-
कनकैक<ref>कैसे</ref> लिजौजू<ref>ले जाऊँगा</ref> ये की भेंट?
तब बोलदो रैदास भगत-
मेरी भेट कू ब्रह्मा, गंगा माई हाथ पसारली,
मेरी भेंट कू ब्रह्मा, गंगा माई वाच<ref>आवाज</ref> गाडली<ref>निकालेगी</ref>!
चली गये ब्रह्मा तब गंगा माई का पास,
नहाये-धोये ब्रह्मा, छाला<ref>किनारे</ref> खड़ो होई गये:
धावू<ref>आवाज</ref> मारे वैन, गंगा न वाच<ref>आवाज</ref> नी गाड़ी।
तब उदास ह्वैगे ब्रह्मा, घर बौड़ीक<ref>वापस</ref> आए,
रैदास की भेंट वो भूली गए!
अथवाट आये ब्रह्मा ओखा फूटी गैन,
गंगा माई जयें देखद, आंखा खुली जांदन!
तब याद आये ब्रह्मा रैदास की भेंट!
धौबी तब धों गया माई का छाला-
रैदास की भेट छ दीनी या माई।
रैदास को नौ सूणीक तब,
गंगा माई न वाच दियाले।
रैदास होलो मेरो पियांरो भगत-
एक शोभनी<ref>सुन्दर</ref> कंकण गंगा माईन गाडयो-
ब्रह्मा मेरी ई समूण<ref>स्मृति चिह्न</ref> तू रैदास देई!
ब्रह्मा कामन कपट ऐगे, लोभ धमीरो,
यो शोभनी कंकण होलू मेरी नौनी<ref>लड़की</ref> जुगन<ref>योग्य</ref>!
तब रैदास का घर का घाटा
ब्रह्मा लौटीक नी औंदो!
पर जै भी बाटा जाँद रैदास खड़ो ह्वै जांद-
ब्रह्मा गंगा माई की मैं सम्पूण दीईं होली!
त्वैकू बोल्यूँ रैदास-
व्याखुनी<ref>शाम को</ref> दां मैंन तेरा घर औण।
सुणदो रैदास तब परफूल<ref>प्रसन्न</ref> ह्वैगे,
सुबेरी बिटे<ref>से</ref> गौंत<ref>गोमूत्र</ref> छिड़कंदो,
घसदो छ भितरी, लीपदो छ पाली<ref>दीवाल</ref>।
आज मेरा डेरा गंगा माई न औण।
वैकू चेला होलू जल कुँडीहीत,
जादू मेरा हीत बद्री का बाड़ा, केदार की कोण्यों,
ली आवो मैकू अखंड बभूत!
देवतों न सूणे रैदास की बात,
जोगी हीत तब पिंजड़ा बन्द करयालें!
इन होलो सत जत को पूरो,
जोगी पाखुड़ी<ref>पक्षी</ref> बणी उड़ी जांदो!