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निरंतरता / मनीष मूंदड़ा
Kavita Kosh से
जीवन और मृत्यु की धाराएँ
समय का निरंतर बहाव
सपनों से भरे बहते ये बादल
सभी कुछ तो बह रहे हैं
समानान्तर
निरंतर
रुकना मानो प्रकृति के व्यवहार में नहीं
फिर भला हम क्यों रुके?
फिर भला हम क्यों थमे?
चलना ही होगा हमें
हर समय
हर पल
अग्रसर, तत्पर, निरंतर...