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निरखि सखि! मोहन की मुसकान / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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निरखि सखि! मोहन की मुसकान।
निरखत ही सुधि बिसरि जायगी, भूलि जायगौ मान॥
सुर-मुनि, मनुज-दनुज, पसु-पंछी, को अस जो जग जायौ।
लखि कै मृदु मुसक्यान ललन की, सुध-बुध नहिं बिसरायौ॥
जोगी, परम तपस्वी, ग्यानी, जिन निज-निज मन मार्‌यौ।
तनिक निरखि मुसक्यान मधुर तिन बरबस जीवन हार्‌यौ॥
बिसर्‌यौ सहज बिराग, ब्रह्मा-सुख, थकित बिलोचन ठाढ़े।
तनु पुलकित, दृग प्रीति-सलिल, द्रुत हृदय, प्रेम-रस बाढ़े॥
तैरौ हियौ नेह-परिपूरन, तेरी कौन बिसात।
कछु न बचैगौ, निरखैगी जब मोहन कौं मुसकात॥
जौ कहुँ कबहुँ लर्‌ईं सुनि तैंने वा मुरली की तान।
तौ सब छूटि जायगी ममता, लोक-लाज कुल-कान॥
जौ लौं दृष्टि परै नहिं तेरी वा मधुरी मुसक्यान।
तौ लौं बकै-झकै, हिय राखै भलैं अधम अभिमान॥