भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
निराश प्रकृति / अज्ञेय
Kavita Kosh से
निराश प्रकृति विहाग गा रही है; मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में मौन खड़ा हूँ।
आकाश की आकारहीनता की करुण पुकार की तरह टिटिहरी रो रही है-'चीन्हूँ! चीन्हूँ!' पर अपनी अभिलाषाओं के साकार पुंज को कहीं चीन्ह नहीं पाती!
दूर कुएँ पर रहट चल रहा है। उस की थकी हुई पीड़ा फफक-फफक कर कहती है, 'पालूँगी! पालूँगी!' पर स्वभाव से अस्थिर पानी बहता ही चला जाता है।
रात की साँय-साँय करती हुई नीरवता कहती है, 'मुझ में सब कुछ स्थिर है,' पर अवसाद की भाप-भरी साँस की तरह से दो सारस उसके हृदय को चीरते हुए चले जा रहे हैं।
निराश प्रकृति विहाग गा रही है, पर मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में मौन खड़ा हूँ!
मुलतान जेल, 2 नवम्बर, 1933