निर्वात / संजय शेफर्ड
निर्वात में भी
इतनी आवाज़ तो होनी ही चाहिए कि
कान सुन सकें हृदय का धड़कना
नाक सूंघ सके
संवेदनाओं- भावनाओं की महक
आंखें महसूस कर सकें
पलकों का खुलना- बंद होना
चुप्पियों की भी
अपनी आवाज़- अपनी पद्चाप होती है
और जिन्दा लोग
बड़ी ही सहजता- बड़ी ही सजगता से
इन आवाजों को सुनते- महसूसते भी हैं
शायद वे मरे हुए लोग हैं
जो इन बेशक़ीमती आवाज़ों को
तनिक भी सुन-महसूस नहीं कर पाते
और पैदा लेते हैं
अपने आसपास एक भारी निर्वात
जिसमें आवाज नहीं होती
और नहीं होती है तनिक भी रंग और रौशनी
इसीलिए, दुनिया की तमाम अदालतों में
मैंने अर्जी लगाई है
थोड़ी सी आवाज़, थोड़े से रंग और रौशनी की
ताकि मरे हुए लोग
एक बार फिर से जिन्दा हो सकें
निर्वात की सभी रिक्त जगहें पुन: भरी जा सकें।