भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
निर्वासन में / प्रणव कुमार वंद्योपाध्याय
Kavita Kosh से
कितने बरस बाद
लौटा हूँ घर ?
मेरी स्मृतियाँ अब
अपाहिज़ की तरहँत्थीलड़खड़ाती हैं
समय की
खन्दकों के बीच ।
लमहे तो गुज़रते हैं
लेकिन
बूढ़ा नहीं होता समय !
उसे लीलना जो है
हमारे पापों की फ़सल
रक्तबीज की तरह
जो है अन्तहीन !
समय की तरह
कुछ और भी है
जो नहीं बदलता ।
घर ?
हाँ, घर तो
वही है !
पुआल के नीचे दबी
बाँस की वही खपच्चियाँ
मिट्टी की दीवारों में
चिपकी कौड़ियाँ
और हल्दी के साथ
खड़िया के रंग में
खिले कमल !
और ?
और है
महुए के नीचे का कुआँ
सफ़ेद चन्दन-वृक्ष
के सामने ।
महुए का फूल
जब झरता था
कुएँ के जल में
बनते थे जलवृत्त
ख़ुशबू की तरह
आहिस्ते - आहिस्ते
फ
——
२३ अक्तूबर १९८४
ट्रॉंय, न्यूयार्क