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निर्वासित / वंशी माहेश्वरी

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असह्य उदास
निरीह बूढ़े आदमी की तरह
हाँफ़ता
निर्वासित दुःख
जो मेरा नहीं
नहीं कह सकता कि मेरा नहीं !

इस क़दर अकेला
गुमसुम होकर
अपने निरपेक्ष चेहरे पर
उजाड़ होती शिकायतों के बाहर फैली ख़ामोशी में
समय के आख़िरी क्षण को समेट कर रखता है
अँधेरे खण्डहर स्वप्नों के लिए !

उसका
निराश आक्रोश
अभिशप्त के शरीर से बाहर झाँक कर
कितने ही इंतज़ारों में
देखता है
शताब्दियों की मर्मान्तक यातना !

हर दम आता-जाता रहा उसका आना जाना
उसकी आहट में
अतीत है
आकाश है
मन के अँधेरे से फूटता उजाला है
और .....करुणा की असीम ऊष्मा है !