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निशाना / रेखा चमोली

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इस हवा में मनुश्य के जलने की गंध है
चीखें हैं बेगुनाहों की
इस मिटटी पर पडा खून
चप्पलों जूतों पर लग फैल रहा है चारों ओर
यहॉ आवाजें नहीं हैं शोर है
मारो मारों का आलाप है
कुत्सित इशारे हैं
विध्वंसक हाथ हैं
ओजस्वी वक्तव्यों से गूॅजती दिशाएं हैं
चापलूसी बातचीत हैं
कुटिल मुस्कानों में छिपे नरभक्षी दॉत हैं
इनसे बचकर निकल जाने से कुछ नहीं होगा
जब तक जलता रहेगा मांस
गन्धाती रहेगी हवा
पानी बनता रहेगा जहर
अब और अनदेखा न करो
अब और चुप न रहो
अब और गलत न सहो
कहीं अगला निशाना तुम न बनो।