भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

निश्छल, निर्मल, कल-कल, छल-छल / मनोज भावुक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

KKGlobal}}


निश्छल, निर्मल, कल-कल, छल-छल,
झरना जइसन मन दे दीं
देबे के बाटे भगवन तऽ,
फेरू ऊ बचपन दे दीं

हीरा-मोती, सोना-चानी,
गाड़ी-बंगला ना चाहीं
बस एगो छत, छत के नीचे,
खुला-खुला आँगन दे दीं

लिपटे भले भुजंग, अंग विष,
व्यापे ना, हे राम कबो
अइसन अमृत जइसन मन
आ चंदन जइसन तन दे दीं

दिल में उनका पत्थर बाटे,
पत्थर में भी काई बा
अब ओह पत्थर के जगहा दिल,
दिल में कुछ धड़कन दे दीं

लाल खून बा रोड प पसरल,
नीला तन के भीतर बा
एह आलम में चक्र-सुदर्शन
लेके अब दर्शन दे दीं

जे हमरा के समझ सके,
हमरा के मन से अपनावे
अइसन केहू मिले त हम,
ओकरा के दिल आपन दे दीं.