भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नींद-२ : कितनी प्यारी है नींद / सुरेन्द्र स्निग्ध

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नींद की गहरी खाई को
पाटती
हहाती बस
बढ़ी चली जा रही है
गन्तव्य की ओर ।

अन्धेरे में
भागता जा रहा है जंगल
भागते जंगलों के साथ
आँख-मिचौली
खेल रही है
मेरी नींद
कितनी प्यारी है नींद ।

भागते जंगलों के बीच
लिपटी है
मेरी आँखों से
काट रही है
अन्धकार
के जंगल ।