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नींद को / धर्मेन्द्र चतुर्वेदी

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जब स्वप्नदृष्टा दुनिया
मसरूफ होती है
स्वप्नों की और स्वप्नों सी रंगीनियों में ,
तब देखकर मैं
पल-पल गुजरता वक़्त ,
इंतज़ार किया करता हूँ
तुम्हारे आगमन का |

जानता हूँ,तुम नहीं आओगी
और न ही बुलाओगी ,
इसीलिये सुनने लगता हूँ
तुम्हारे लिए सुरक्षित रखा
मोजार्ट का संगीत ;
पढ़ने लगता हूँ
नए-पुराने उपन्यास;
दोहराता हूँ गिनतियाँ
पहले सीधी फिर उलटी ;
और सोचने लगता हूँ
पतझड़ का पेड़/टूटता कनेर,
झूलती रस्सी/डूबती बस्ती ,
अवन्ती,अनाम/भूला हुआ नाम,
बढ़ता उधार/नवीं कक्षा का प्यार |

इसी तरह, सोच-सोचकर
तुम्हें बुलाने के नए तरीके,
खो जाना चाहता हूँ
कई छोर जोड़कर बनी
खयालों की जंजीरों में ;

और मेरे इन तमाम प्रयासों के बावजूद
जब नहीं आती हो तुम ,
तो जानती हो
खा लेता हूँ दो-चार गोलियाँ,
पटक लेता हूँ दीवार पर सर,
और आखिर में
लिख लिया करता हूँ
कुछ बेरहम कवितायें,
आधी रात को ;
जो धारण कर रौद्र रूप
मारा करती हैं
दिन भर |

कुछ इस तरह के बन गए हैं
आजकल के दिन,
और आजकल की रातें,
और महसूस कर रहा हूँ तुम्हारी जरूरत
पलकर अभाव में
तुम्हारे |