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नींद नहीं सपने नहीं / वंशी माहेश्वरी
Kavita Kosh से
रात
अनगिनत सपने बाँटती है हर रात
कई सपने
भटक कर लौट आते हैं
उन सपनों को
अपनी नींद में उतारती है रात !
सुबह तक वह
भूल जाती है
टूटती जुड़ती
अनगढ़ सपनों की दुनिया
सुबह से दिन भर के सारे एकांत समेट कर
व्यथित हुए
अपने निहंग संसार को
अँधेरे में बुनकर
बाँटती है
लौट-लौट आते हैं
थक
कर सपने
पिछली कई रातों से
रात की आँखों में
नींद नहीं
सपने नहीं
उतर आये हैं मनुष्य !
जो भोर होते-होते
बे नींद
जीवन में लौट जाते हैं !