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नींद / आरती तिवारी
Kavita Kosh से
उसकी नींद में,बिछौना नही था
मोड़े हाथ का तकिया
सबसे बड़ा ऐश्वर्य था
तब,जबकि बच्चा करवट ले
हो चुका हो औंधा
उसकी नींद अकेली थी
जैसे दौड़ती है,एक नदी अकेले अकेले
जब तक समा न जाये
सागर में
दिन की भट्टी में झुलसी देह
रात को बाँट रही थी
पसीने का उपहार
जिसकी रगड़ से पैदा चिंगारियाँ
ज़मीन की चादर को
चिपचिपाहट से बेध रहीं थी
उसकी नींद में
आराम का वैभव नही था
मरी हुई नींद की कातरता
उसका प्राप्य थी
उसकी नींद में
एक बन्द खिड़की थी
जिसके खुलने
और हवा के रेशमी झौंखे से
पत्थर होती जा रही देह को
नहला जाने का
एक कोमल सपना बाकी था