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नीम की व्यथा / जितेन्द्र सोनी

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बस्ती के बीचों-बीच
खड़ा था
एक जर्जर नीम
प्यासी आँखों के साथ
सुबह के इंतज़ार में
याद थे उसे वो दिन
होली,ईद , बैसाखी और क्रिसमस के
नहीं भूला था
अपनी छाया में
खेलते बच्चों की शरारतें
ग्रामीणों का भाईचारा
चारों तरफ़ खुशियाँ ही खुशियाँ
अचानक कहीं से एक
धर्म की चिंगारी आई
और जला गई
बस्ती के अमन को
चैन कहीं खो गया
इंसानियत सो गई
नीम के नजदीक
मज़हब की चौपाल बनी
जहाँ हैवानियत की बातें होती थी
दूध के साथ मिलता
नस्ल का ज़हर
और चूल्हों पर पकती
साम्प्रदायिकता की रोटियां
दंगाई हो गया है
इस बस्ती का आदमी
बचा कुछ नहीं है यहाँ
सिवाय एक काली रात के !