भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नीलमनि धेनु लिये सँग आवत / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नीलमनि धेनु लिये सँग आवत।
गोपद-धूरि गगन महँ छा‌ई, गो-धन इत-‌उत धावत॥
क्रीनड़त ग्वाल-बाल-सँग प्रमुदित हिलि-मिलि, हँसत-हँसावत।
नाचत-कूदत बिबिध ताल दै, बेनु-बिषान बजावत॥
मुरली-धुनि सुनि मधुर कान्ह की, घर-घर मंगल छा‌ए।
व्रज-जन-मन-रंजन दुख-भंजन मोहन बन तें आ‌ए॥
अलकावलि अलि-पाँति-लजावनि, कुटिल भृकुटि अति बाँकी।
सिर सिखि-पिच्छ मुकुट मनि-मंडित, मधुर मनोहर झाँकी॥
बन बिहरत श्रम-जनित स्वेद-कन सुभ ललाट पर झलकत।
नीलोत्पल-दल-कांति मनोहर प्रेम-सुधा-सर छलकत॥
जलद निरखि ज्यों तृषित चातकी चिा निरतिसय हरषत।
गोपीजन त्यों मगन होत हरि-रूप-माधुरी निरखत॥
रसमय बलित ललित मनि-कुंडल गंड मुकुर अति चमकत।
नटवर-वेष मदन-मोहन की रूप-ज्योति अति दमकत॥