भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नीली साड़ी पहने / राम लखारा ‘विपुल‘
Kavita Kosh से
नीली साड़ी पहने कल-कल गुजरी एक नदी सी वो,
और रेत के टीले जैसे देख रहे थे हम उसको।
पास हमारे प्रीत के हेतु
मिट्टी का आंचल ठहरा,
लेकिन उसकी आंखों में था
लहराता सागर गहरा।
सागर से क्या होड़ लगाते
प्रीत हमारी ही रोती,
अपने दामन में कंकर थे
उसके दामन में मोती।
मर्यादा का मंडप घूमी पावन सप्तपदी सी वो,
और हवन के कुंड सरीखे देख रहे थे हम उसको।
रोज सवेरे उसके गोरे
माथें पर सूरज साधा,
शाम ढलें पांवों में जगमग
पहनाया चंदा आधा।
भरी दुपहरी मौली बांधी
उसकी नर्म कलाई में,
सावन से पींगे झुलवाएं
झूले उसे जुलाई में।
सौंधी यादें देकर गुजरी बीती एक सदी सी वो,
और कैलेण्डर के दिन जैसे देख रहे थे हम उसको